गुठलियाँ बोते, रासते जीवन के हैं मापने।
गठरी बाँध चली, लिए मुट्ठी भर सपने॥
खरा उतरा जो नैनों से, होने को कलमबंद,
लिखने पर बनें स्याही से, कागज़ के ही छंद।
दिखे न चाँद, न बादल, न अंधेरे मे नदिया।
हर नज़ारे को प्रकृति ने जैसे प्रेम से बुन ढोया ॥
प्रेम की छाया छाई नाचती हुयी कली-पत्तों के द्वारा ।
जैसे पिय से मिलने, हवाओं का लिया सहारा॥
धरा की चुम्बन को हर डाली है तरसे।
मुडा हुआ तन, मटका है, फ़िर से,
झुकी-झुकी सी अम्बुआ की तरु
कहती, "कुदरत से नयन मैं बचाते हरून!"
नींव से गांठ बंधा यह रिश्ता परखने
आए बरसने यह गरजते बादल भी घने
न माने जहाँ इस प्रेम को पावस
कुदरत भी इतराके कहे इसे हवस
बिछड़ने निकले चीर ज़मीन की छाती
सीना ताने हुए खड़े, हम पेड़ और साथी
न तरु धरती से मिल पावे, न आसमान छुआ जावे
नींव और तरु की कहानी कहे, प्रेमी बिछड़ न जावे
सूनी हवाओं की ज़बानी, सुनो नींव की कहानी
कहे कभी ममता की छाँव, खोते नहीं हैं धानी
1 comment:
Sathiyama puriyalai :( Kahani-etho story-nu puriyuthu !
Illa any poem ! Kavithai/Kathai - tamil-a next time podunga!
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